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Saturday 10 October 2015

कैलाश मानसरोवर यात्रा---बीसवाँ दिन ----तकलाकोट से गुंजी



कुल रास्ता : -  15 कि.मी  बस से + 26  कि.मी. पैदल 
 

 
आज हमें अपने देश, अपनी धरती पर वापस जाना था। भारतीय समय के अनुसार हम 3:30 बजे उठ गए, दैनिक नित्य कर्म से निवृत और स्नान कर हम 5 बजे अपने कमरो की चाबियाँ जमा कर तैयार थे। सभी यात्री वहाँ आगए तो एलओ ने गुरु से सभी यात्रियों को बस में बैठाने को कहा और शिव स्तुति के साथ हमारी बस चल पड़ी।

थोड़ी देर बाद हमारी बस कस्टम ऑफिस के बाहर थी। जहाँ चीनी अधिकारीयों ने प्रत्येक यात्री की जाँच की। पासपोर्ट पर लगी फोटो से उनका मिलान किया। इस के बाद  हमारी बस भारत-चीन बॉर्डर लिपु पास की तरफ चल पडी। बस सुनसान पहाड़ी क्षेत्र में चली जा रही थी, धीरे-धीरे पौ फटने लगी आकाश में दिन निकलने से पहले का प्रकाश छाने लगा।

पहाड़ी उबड़ खाबड़ रास्तो पर चलते हुए हमारी बस पहाड़ों से घिरे एक सुनसान स्थान पर जाकर रुक गयी। अब हमें जीप में बैठ कर 3 कि.मी. के करीब जाना था। जीप कुछ यात्रियों को ले जाती और उन्हें ऊपर तक छोड़ कर वापिस दूसरे यात्रियों को ले जा रही थी। ठण्ड बहुत ही ज्यादा थी। सभी यात्री बस में बैठ कर ही जीप का इन्तजार कर रहे थे। मैं सब से आखिर में गया। जहाँ हमें जीप ने छोड़ा था उस के बाद हमें 1 कि.मी.के लगभग पैदल बर्फ पर चल कर 17500 फ़ीट की ऊंचाई पर पहुँचना था। आगे का रास्ता फिसलन भरी बर्फ से भरा था। सभी यात्रियों को अपने बैग खुद ही उठाने थे, इस लिए सभी यात्री धीरे धीरे चल रहे थे। ऑक्सीजन भी बहुत कम थी। कई यात्री तो बहुत ही धीरे धीरे चल रहे थे। लिपुलेख दर्रे के आखिरी 50 मीटर की चढाई एकदम सीधी थी।  

मैं लिपलेख बॉर्डर  के पास पहुँचा तभी मेरा पोर्टर चीनी सीमा के अंदर आ कर मेरे गले लग गया और उस ने मेरा बैग उठा लिया। उसी तरह और भी पोर्टर चीन सीमा के 30 -40 मीटर सीमा के अंदर आ कर अपने अपने यात्रियों को ढूंढ रहे थे। लिपु बॉर्डर पर पहुँच कर हम अपनी देश की  सीमा में प्रवेश कर गए। हमारे सिपाही हमारे स्वागत के लिए खड़े थे। हाथ पकड़कर सभी को बुला रहे थे। वह पल हमारे लिए गर्व के पल थे। हम अपने देश में लिपुलेख दर्रे पर खड़े थे। बॉर्डर पर ठंड बहुत थी। मौसम भी खराब था। वहीँ पर सभी यात्री अपने अपने पोनी पोर्टर को ढूंढ रहे थे। लिपुलेख के पास पहुँच कर पता चला कि हमारी एक यात्री नीलम जी की तबियत लिपुलेख बॉर्डर पर  बहुत ख़राब हो गई थी। ऑक्सीजन सीलेंडर भी नहीं खुला था। उन्हें बहुत मुश्किल से संभाला गया। एक तरह से भोले नाथ ने उन्हें नया जीवन दिया। 

जहाँ चीन साइड गिर जाने पर कोई उठाने वाला नहीं था। वही अपनी साइड सहारा देने वाले कई हाथ थे। एक बात और जहाँ बॉर्डर के उस साइड (चीन) के 4 कि.मी. बाद चीन की सैनिक चौंकी और सड़क मोटर  मार्ग था, वही हमारी तरफ 9 कि.मी. के बाद सैनिक चौंकी और 18 कि.मी. के बाद सड़क मोटर मार्ग था। 
 
सीमा पर ही हमें सातवें  दल के सदस्य मिले जो हाथ जोड़कर अभिवादन कर रहे थे। कई यात्री तो पैर छूकर आशीर्वाद ले रहे थे। हम सभी ने उनकी यात्रा सकुशल होने की शुभकामनाएँ दीं।

थोड़े  समय के विश्राम के साथ मै नवींढांग की तरफ पैदल चल पड़ा। रास्ता उतराई का था सिपाहियों के ग्रुप भी यात्रियों के साथ-साथ चल रहे थे। हम सकुशल यात्रा पूरी करके स्वदेश वापिसी के सुखद भाव में भरे प्रकृति के सुंदर बिछावन को देखकर मोहित हो रहे थे जिन्हें जाते समय अंधेरा होने के कारण देख भी न सके थे। क्या दृश्य थे! उन्हें देखकर मुझे लग रहा था कि वह कोई विशाल पोस्टर है। मैंने सुंदर दृश्यों को कैमरे में उतारा और ललचायी सी नजरों से चारों ओर देखते हुए  आगे बढ़ता गया। जहाँ तिब्बत का पूरा पठार पूरी तरह वनस्पति विहीन और बंजर था।  वही अब भारतीय सीमा में हिमालय के शिखरों का सोंदर्ये प्रगट हो गया था।  लिपुलेख दर्रे से उतरते ही रास्ते के किनारे छोटी घास और झाड़ियाँ मिलने लगी थी। 

बीच में एक स्थान पर जवानो ने हम सब को रोककर गर्म-गर्म चाय और चिप्स खिलाए। सुबह से इतनी ठंड में चलने पर मिली वह चाय नहीं अमृत थी। शरीर को गर्मी और स्फूर्ती मिली। हम अपने उन जवानों की निस्वार्थ सेवा के ऋणी हैं।

मैं 9.30  बजे सुबह नवीढ़ांग कैम्प पहुंच गया वहां हम ने नाश्ता किया। कुछ यात्री भी पहुंच चुके थे तथा शेष लगातार आ ही रहे थे। नवींढांग में हम ‘ऊं’ पर्वत के दर्शन करने के लिए रुक गए। लेकिन लगता था ॐ  पर्वत के दर्शन हमारे भाग्य में नहीं थे।  बादल होने के कारण हमें आंशिक ॐ के दर्शन हो रहे थे। 

एक घंटा रुकने के बाद  हम  ने काला पानी के लिए प्रस्थान किया।  नदी किनारे दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और घाटी में तेरह दिन में ही मौसम अपना रंग दिखा चुका था। हरियाली पनपने लगी थी, कहीं-कहीं पहाड़ों के ढलान पर रंगबिरंगे छोटे-छोटे फूल भी खिल रहे थे।  निरंतर चलते हुए हम 1.30  बजे  हम काला पानी पहुंच गये और बुरांश का शरबत जी भर कर पिया। दोपहर के भोजन और थोड़े विश्राम के बाद हम इमिग्रेशन क्लेरेंस करा कर काली माता के चरणो में अब तक की निर्विघ्न यात्रा एवं दर्शनों के लिए धन्यवाद किया एवं आगे के जीवन के आशीर्वाद की कामना लिए मंदिर में प्रवेश किये।

थोड़ी देर बाद हम गुंजी के लिए निकल पड़े। कालापानी से गूंजी तक मार्ग अच्छा  है। इस पर ITBP और सीमा सड़क संगठन के ट्रक चलते रहते हैं।  पैदल चलते यात्रियों को देख कर ये ट्रक रुक गए और यात्रियों को चढ़ा लिया। आखिर के 4 कि.मी. ट्रक से यात्रा की गई। आज की यात्रा काफी लम्बी और थकाने वाले थी। 4 बजे के करीब हम ने  गुंजी में प्रवेश किया। आज कुल 26 कि.म. चले थे। हम गुंजी कैंप जाते समय हम ने आई टी बी पी कैंप में माता मंदिर में दर्शन किये और अपने  कैंप में पहुंचे।

पहुँचते ही चाय आ गयी फिर थोड़ा आराम किया और तब तक हमारा सामान आ गया। उसे ले कर कमरे में लाये आगे के रास्ते के लिए सामान निकाला और वापस पैक कर दिया। आईटीबीपी के द्वारा आज यात्रियों के वापस आने की खुशी एवं स्वागत में मंदिर में भजन व वही पर पास में ही ‘‘बड़ा खाना‘‘ का कार्यक्रम रखा गया है। सभी यात्री कैम्प से नीचे स्थित कालीमंदिर गए एवं भजन आरती में शामिल हुए। उसके पश्चात रात्रि 8.00 बजे रात्रिभोज मे सम्मिलित हुए। जिस में सभी यात्री और जवान शामिल थे। औपचारिक सम्बोधन और आभार प्रदर्शन हुआ। हमारे दल ने सामूहिक रूप से एकत्रित किये गए रुपयो में से 25000 रुपए की राशि ITBP के विधालयों के लिए भेंट की। सभी यात्री आनन्दपूर्वक भोजन किए एवं वापस 9.30 बजे आकर सो गए।
 
चलती बस से चीन साइड लिया गया फोटो 



लिपुलेख दर्रे से पहले बर्फ पर चलते हुए 


इंडिया साइड 




लिपुलेख से वापसी 

रास्ते में सुन्दर फूल 








नवीडांग कैंप 


ॐ  पर्वत के दर्शन के लिए बैठे हुए यात्रीगण 


ॐ पर्वत के आंशिक दर्शन 










काला पानी में काली माता का मंदिर 



ट्रक में बैठ कर जाते हुए 



 
 

4 comments:

  1. एक अलग ही अनुभूति होती है अपने देश में पैर रखने पर। गजब वृत्तान्त।
    मोटर मार्ग कहां तक बनी है हमारी साइड में?

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  2. नीरज जी यात्रा की सराहना के लिए शुक्रिया। मोटर मार्ग धारचूला से गर्बाधार तक ही है। इस के बाद सब पैदल रास्ता है।

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  3. बहुत ही सुंदर यात्रा वृतांन्त। अपने देश में कदम रखते ही हौसला बढ़ गया होगा।

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  4. सही कहा आप ने सचिन जी अपने देश में आ कर हौंसला तो बढ़ ही गया था। सच कहूँ पहला कदम अपने देश में रखते ही सारा डर एक दम से खत्म हो गया था।

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