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Thursday 30 July 2015

कैलाश मानसरोवर यात्रा ............छठा दिन ......धारचूला से सिरखा (वाया नारायण आश्रम) 54 KM Jeep + 6 KM Trek

 
धारचूला के बारे में 

धारचूला एक सुंदर शहर है जो उत्‍तराखंड राज्‍य के पिथौरागढ़ जिले में भारत - नेपाल सीमा पर स्थित है। इस जगह का नाम हिन्‍दी भाषा के दो शब्‍दों धार और चूला से मिलकर बना हुआ है जिनका अर्थ होता है धार यानि चोटी और चूला यानि स्‍टोव। यह शहर एक पहाड़ी क्षेत्र है जिसका आकार स्‍टोव के जैसा दिखता है इसीकारण इस शहर को धारचूला कहते हैं। यह शहर पिथौरागढ़ से 90 किमी. की दूरी पर स्थित है जो पहाड़ों से घिरा हुआ है। इस शहर के पश्चिम में बर्फ से ढ़की पश्चिमचुली चोटी स्थित है जो इस क्षेत्र को जौहर घाटी से अलग करती है। 

सुबह जल्दी आँख खुल गई।  सामान तो रात को ही पैक कर के  सोए थे। स्नान आदि से निवृत्त होकर फोटो सेशन किया गया। इस के बाद नीचे लगेज पंहुचा दिया गया। सभी ने  अपना-अपना लगेज काऊंटर के पास ला दिए जिसे वहां पर हमारे सहयात्री उत्कल जी ( जो कि  गुजरात से हैं।) ने सभी लगेज का वजन करवाया और गिनती कर कुमाऊ मण्डल विकास निगम के अधिकारी/कर्मचारी के हवाले किया गया। नाश्ता शुरु हो गया था सभी ने दिल्ली में मिले अपने-अपने बेंत ले लिए और मार्कर से अपना-अपना नाम लिख लिया।

 
जब हम गेस्ट हाउस से बाहर आये तो देखा आगे के सफर के लिए जीप खड़ी हैं। साढ़े सात बजे के करीब यात्रीगण  शंभु स्तुति के बाद जीप में जा कर बैठ गए। जीप से हमें धारचूला से नारायण आश्रम जाना थे, वहां से पैदल रास्ता शुरु होता है धारचूला इस यात्रा में आखिरी बड़ा शहर है।

काली नदी के किनारे  पहाड़ी रास्ते पर जीप चल रही थी। कुछ ही देर में शरीर की अच्छी कसरत हो गयी थी। आधे घंटे बाद हमारी जीप रुक गई पता लगा आगे रास्ते में एक ट्रक ख़राब है।  हम सब यात्री वही टहलने लगे।  जहाँ हम रुके थे वहां NHPC द्धारा डैम बनाया जा रहा था।  सभी यात्री एक दूसरे से बातें करने लगे और कुछ फोटो खीचने में लग गए।  लगभग आधे घंटे बाद हम वहां से चल पड़े। 11 बजे के करीब हम  लोग नारायण आश्रम पहुंचे, यहाँ पर ड्रा दवारा पोनी एवं पोर्टर का अलॉटमेंट किया गया, एक बार फिर से उत्कल जी ने सभी सभी यात्रियों को पोनी और पोर्टर करने में सहायता की।  अभी भी मुझे समझ नहीं आ रहा था।  कि मैं पोनी पोर्टर करू या ना करू। आखिर मैंने सिर्फ पोर्टर करने का निश्चिय किया। मुझे पोर्टर का नाम याद नहीं आ रहा इस लिए अभी मैं उस का नाम राजिंदर ( नकली नाम ) लिख रहा हु। मैंने अपना पोर्टर किया और अपना बैग उसे दे कर सीढ़ियां चढ़ कर नारायण आश्रम पहुँच गए। 

नारायण  आश्रम के बारे 

नारायण आश्रम की स्थापना 1936 में नारायण स्वामी ने की थी। जो समुद्र तल से 2734 मीटर की ऊंचाई पर है। यह आश्रम एक धार्मिक स्थान है। यहां स्थानीय बच्चे शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी आते हैं। इसके साथ ही नारायण आश्रम स्थानीय निवासियों की सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों में भी मदद करता है। यह आश्रम बहुत ही खूबसूरत है और आश्रम के चारों ओर रंग-बिरंगे फूल इसकी खूबसूरती को ओर अधिक बढ़ाते हैं। आश्रम का वातावरण बहुत ही शान्तिपूर्ण है। इसके अलावा आश्रम में यात्रियों एवं पर्यटकों के लिए मेडिटेशन रूम और समाधि स्थल की सुविधा भी उपलब्ध है। प्रत्येक वर्ष इस आश्रम में काफी संख्या में विदेशी पर्यटक घूमने के लिए यहां आया करते हैं। आश्रम भारी बर्फबारी की वजह से सर्दियों के दौरान बंद रहता है।


 
भगवान नारायण जी की मनमोहक मूर्ति 

यहाँ पर भगवान नारायण जी की बहुत ही सुन्दर मनमोहक मूर्ति है।  हम सभी यात्रियों  ने दर्शन किये। यहाँ पर मंदिर में Hyma जी  हमारी सहयात्री ने (जो U.S.A से हैं ) बहुत ही सुन्दर भजन गाया।  प्रसाद ग्रहण के बाद  शिव जयकारे से साथ चलना शुरु किया आज हमें सिर्फ 6 KM  चलना था। नारायण आश्रम से बाहर आते ही थोड़ा सा पैदल चलने पर जो नजारा दिखा सचमुच मन को मोह लेने वाला था। वैसे भी दो दिन बस मे बैठे बैठे शरीर अकड़ गया था। ऐसा सुन्दर रास्ता देख कर मन में सोचा अब आएगा मजा चलने में । रास्ता ज़्यादा कठिन नहीं था क्योंकि आज हमें सिरखा तक जाना था।  जोकि 2235 mtr की ऊंचाई पर है और नारायण आश्रम 2700 mtr पर।  मतलब हमें ज्यादातर उतराई ही मिलनी थी।  हम सभी यात्री  रास्ते में बच्चो को टॉफियां बाँटते हुए और रास्ते का आनंद लेते हुए सिरखा कैंप पहुँच गए। सिरखा गाँव, रास्ते में पड़ने वाला पहला, सुन्दर और छोटा सा  गाँव है। यहाँ का मुख्य व्यवसाय कृषि है। यहाँ पर 80 के करीब घर हैं और यहाँ की आबादी 300 -350 के करीब है।   

मैं लगभग चार बजे कैंप पहुँच गया।  कैंप पहुचने हमारा स्वागत  शरबत से हुआ। हमारे कैंप के सामने  P.W.D का  गेस्ट हाउस था जहाँ हमारे एल.ओ साहिब के रुकने का इंतजाम था।  शाम को मैं कोचर जी के साथ गाँव मे जा कर PCO से घर बात की। 
धारचूला के आगे पूरे रास्ते कोई मोबाइल नेटवर्क नहीं है। रास्ते में सभी गेस्ट हाउस में PCO की सुविधा उपलब्ध है जो की सॅटॅलाइट के जरिये कनेक्ट होते है।

वापस आ कर सूप पिया और जेनेरेटर शुरु होते ही  कैंप में लाइट जगमगने लगी, लाइट आते ही सभी ने मोबाइल, कैमरा चार्जिंग में लगा दिए,  शाम को भजन संध्या का दौर चला और खाना खा कर हम लोग सोने चले गए।


इस यात्रा को आरम्भ से पढने के लिये यहाँ क्लिक करें।

सुबह के समय का नजारा 

सभी यात्रियों के सामान का वजन करते हुए। 


मलकेश जी , अनिरुद्ध , सिलेश जी ( टोपी में ) और मैं


डैम के पास ट्रक ख़राब होने की वजह से हमें यही थोड़ी देर रुकना पड़ा। 


नारायण आश्रम 


आश्रम के अंदर भगवान नारायण जी की मूर्ति 





हरा भरा रास्ता 

रास्ते में सुन्दर घर 


सिरखा गाँव 


सिरखा में हमारा कैंप 

कैंप से सामने का नजारा 

शाम को भजन 







 

Wednesday 29 July 2015

कैलाश मानसरोवर यात्रा -----पाँचवाँ दिन -- अल्मोड़ा से मिर्थी, धारचूला --बस से = 220 KM


सुबह जल्दी ही आँख खुल गई।  गेस्ट हाऊस के कर्मचारियों द्वारा हमें  कमरे में ही चाय दी गयी। कमरे के बाहर भी हलचल सुनाई देने लगी थी। सभी यात्री तैयार हो कर चाय नाश्ता ले कर बस में बैठ गए।  शंकर भगवान का जयकारा और  हर-हर महादेव का घोष के साथ सभी यात्री निकल पड़े। 

सभी बाहर प्राकृतिक-छटा  निहारने में मगन थे। कुछ दूर चलने के बाद मेरी  तबीयत ख़राब होने लगी। दरअसल मैं पहाड़ो में बस से सफर  नहीं कर सकता।  मुझे ऐसे लगने लगा कि उल्टी अभी आएगी। लेकिन किसी तरह मैंने  अपने आप पर काबू रखा।  कुछ समय बाद बस  एक जगह रुकी। बस के रुकते ही मैं बाहर की तरफ भागा और साइड में जा कर उल्टी करने लगा। उल्टी  करने  के बाद सामने देखा बस तो गोलू देवता के मंदिर के पास खड़ी है।

जैसे ही हम मंदिर में प्रवेश करने लगे तो सामने एक बड़ा सा घंटा टंगा हुआ था। जैसे ही हम मंदिर के थोड़ा सा अंदर और गए तो चारो ओर घंटे ही घंटे टंगे हुए थे। हजारो की तादाद में बड़े से बड़े और छोटे छोटे घंटे टंगे हुए थे।  हम सब अपने अपने सिर को बचाते हुए मंदिर पहुंचे। सभी ने दर्शन-पूजा की और बाहर फोटोग्राफ़ी भी। यहाँ पर मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए एक अनोखा तरीका अपनाया जाता है मनोकामनाओं को कागज़ पर लिखा जाता है और फिर  घंटी के साथ बाँध दिया जाता है। 
 
गोलू देवता के बारे में 

गोलू देवता न्यायाधीश के रूप में पूजे जाते हैं।  भारत के उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा जिले में स्थित चितई नामक स्थान में स्थित गोलू देवता का मंदिर अपने चमत्कारों के लिए सारे विश्व में प्रसिद्ध है। न्याय के देवता के रूप में प्रसिद्ध यह मंदिर हजारों घंटियों से ढका हुआ है। ये घंटियाँ लोग अपनी मनोकामना पूरी करने के बाद चढ़ाते हैं। कोर्ट में लंबित मुकदमों में जीत के लिए लोग यहाँ आ कर गुहार लगाते हैं और कहा जाता है कि गोलू देवता दूध का दूध और पानी का पानी कर देते हैं। 
जनश्रुतियों के अनुसार चम्पावत में कत्यूरी व बंशीराजा झालूराई का राज था। इनकी सात रानियां थी लेकिन वे नि:सन्तान थे। राजा ने भैरव पूजा का आयोजन किया। भगवान भैरव ने स्वप्न में कहा कि मैं तुम्हारे यहां आठवीं रानी से जन्म लूंगा।  एक दिन राजा शिकार करते हुए जंगल में बहुत दूर निकल गए। उन्हें प्यास लगी। दूर एक तालाब देखकर राजा ने ज्यों ही पानी को छुआ उन्हें एक नारी स्वर सुनाई दिया, 
'यह तालाब मेरा है। तुम बिना मेरी अनुमति के इसका जल नहीं पी सकते।' 
राजा ने उस नारी को अपना परिचय देते हुए कहा- मैं गढ़ी चम्पावत का राजा हूं। मैं आपका परिचय जानना चाहता हूं। तब उस नारी ने कहा- मैं पंच देव देवताओं की बहन कलिंगा हूं। राजा ने उसके साथ शादी की।रानी कलिंगा गर्भवती हुई। राजा प्रसन्न हुआ पर उसकी बाकी सात रानियों  को जलन हुई। रानी कलिंगा ने बालक को जन्म दिया पर सातों रानियों सिल बटटे को रानी कलिंगा को दिखाकर कहा कि तुमने उसे जन्म दिया है। बालक को एक लोहे के संदूक में लिटाकर काली नदी में बहा दिया। वह संदूक गोरीघाट में पहुंचा। गोरीघाट पर भाना नाम के मछुवारे के जाल में वह संदूक फँस गया। मछुवारा नि:संतान था, इसलिए उसने बालक को भगवान का प्रसाद मान कर पाल लिया। एक दिन बालक ने अपने असली माँ-बाप को सपने में देखा। उसने सपने की बात की सच्चाई का पता लगाने का निश्चय किया। एक दिन उस बालक ने अपने पालक पिता से कहा कि मुझे एक घोड़ा चाहये। निर्धन मछुवारा कहाँ से घोड़ा ला पाता। उसने एक बढ़ई से कहकर अपने पुत्र का मन रखने के लिए काठ का घोड़ा बनवा दिया। बालक चमत्कारी था।  उसने उस काठ के घोड़े में प्राण डाल दिये और फिर वह उस घोड़े में बैठकर दूर-दूर तक घूमने जाने लगा। एक बार घूमते-घूमते वह राजा झालूराई की राजधारी धूमाकोट में पहुँचा।  घोड़े को एक जलाशय के पास बांधकर सुस्ताने लगा। वह जलाशय रानियों का स्नानागार भी था। सातों रानियां आपस में बातचीत कर रही थीं और रानी कलिंगा के साथ किए गए अपने कुकृत्यों का बखान कर रहीं थी कि बालक को मारने में किसने कितना सहयोग दिया और कलिंगा को सिलबट्टा दिखाने तक का पूरा हाल एक दूसरे को बढ़ चढ़ कर सुना रही थी। उनकी बात सुनकर, बालक को अपना सपना सच लगने लगा। वह अपने काठ के घोड़े को लेकर जलाशय के पास गया और रानियों से कहने लगा,
'पीछे हटिये- पीछे हटिये, मेरे घोड़े को पानी पीना है।'
सातों रानियां उसकी बेवकूफी भरी बातों पर हँसने लगी और बोली, 'कैसे  बेवकूफ हो। कहीं काठ का घोड़ा पानी भी पी सकता है।'
 
बालक ने तुरन्त पूछा,
'क्या कोई स्त्री पत्थर (सिल-बट्टे) को जन्म दे सकती है?'
सभी सातों रानियों डर गयी और राजमहल जा कर राजा से उस बालक की झूठी शिकायतें करने लगी। राजा ने बालक को पकड़वा कर पूछा,'यह क्या पागलपन है तुम एक काठ के घोड़े को कैसे पानी पिला सकते हो?'
 
बालक ने उत्तर दिया, महाराज यदि आपकी रानी सिलबट्टा (पत्थर) पैदा कर सकती है, तो यह काठ का घोड़ा भी पानी पी सकता है।' उसके बाद उसने अपने जन्म की घटनाओं का पूरा वर्णन राजा के सामने किया और कहा, 'न केवल मेरी मां कलिंगा के साथ अन्याय हुआ है पर महराज आप भी ठगे गए हैं।'राजा ने सातों रानियों को बंदीगृह में डाल देने की आज्ञा दी। सातों रानियां रानी कलिंगा से अपने किए की क्षमा मांगने लगी और रोने गिड़गिड़ाने लगीं। तब उस बालक ने अपने पिता को समझाकर उन्हें माफ कर देने का अनुरोध किया। राजा ने उन्हें दासियों की भाँति जीवन-यापन करने के लिए छोड़ दिया।  कहा जाता है कि यही बालक बड़ा होकर ग्वेल, गोलू बाला, गोरिया, तथा गौर -भैरव नाम से प्रसिद्व हुआ है। ग्वेल नाम इसलिए पड़ा कि उन्होंने अपने राज्य में जनता की एक रक्षक के रूप में रक्षा की। आप गोरी घाट में एक मछुवारे को संदूक में मिले, इसलिए बाला गोरिया कहलाए। भैरव रूप में इन्हें शक्तियाँ प्राप्त थी। आप गोरे थे इसलिए इन्हें गौर भैरव भी कहा गया। 

 
इस के बाद सब यात्री बस में बैठ गए। आगे चल कर बस धौलछीना में एक रेस्टोरेंट में नाश्ते का प्रवन्ध था। सभी यात्रियों ने यहाँ पर नाश्ते का आनंद लिया। बस चलने से पहले सभी ने कुछ चित्र लिए। 
अब हमारी अगली मंजिल यहाँ से 119 km दूर डीडीहाटमें कुमाऊँ-मंडल का गेस्ट-हाऊस था। दोपहर का भोजन वही था। सभी यात्री यात्रा का आनंद लेने में मग्न थे। हम दोपहर तक डीडीहाट के कुमाऊँ-मंडल के  गेस्ट-हाऊस पहुँच गए। 
 
डीडीहाट के बारे में

पिथौरागढ़ जिले में स्थित डीडीहाट एक शांत पर्यटन स्थल है। यह एक नगर पंचायत है यह समुद्र तल से 1750  मीटर की ऊंचाई पर ‘डिग्टड़’ नामक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। इस जगह का नाम कुमाऊंनी शब्द ‘डंड' से लिया गया है, जिसका मतलब एक छोटी सी पहाड़ी से है। नीचे चरमगढ़ व भदीगढ़ नदियां बहती हैं।  
 
यहाँ पर सभी यात्रियों  का स्वागत  बहुत सुंदर बच्चों ने किया। यहाँ पर सभी यात्रियों ने जलपान किया और अगले पड़ाव 5 km दूर मिर्थी आई.टी.बी.पी कैंप की और चल पड़े। थोड़ा सा आगे जाने पर हमारी बस के आगे आई.टी.बी.पी की पायलट जिप्सी चल पड़ी। जो हमें मिर्थी के आई.टी.बी.पी कैंप में ले गई। जैसे ही हम बस से उतरे तो हम ने देखा बैंड-बाजे बज रहे थे। स्थानीय लोक-कलाकार परंपरागत वेशभूषा में छलिया-नृत्य करते हुए चल रहे थे। हमारे कुछ यात्री भी इस नृत्य में शामिल हो गए। यहाँ पर आई.टी.बी.पी. के जवानों ने बड़ी गर्मजोशी के साथ  हमारा स्वागत किया। इस प्रकार का स्वागत देख कर ऐसा महसूस हुआ जैसे हम कोई V.I.P हों। आगे जाकर मुख्य स्वागत-कर्ता आई.टी.बी.पी. के कमांडर  दल के स्वागत में खड़े थे। उन्होंने एल.ओ को पुष्प भेंट किए। वही पर एक शिवजी के मंदिर में सभी नतमस्तक हुए।
 
इसके बाद हमें ग्रुप फोटो के लिए एक स्थान पर ले जाया गया। फोटो लेने के लिए सीट नामांकित-पर्ची चिपकी हुई पहले से ही निश्चित थीं, सभी अपने निर्धारित स्थान पर बैठ गए और फोटो खिचवाया। तत्पश्तात सभी को जलपान हेतु बड़े कक्ष में ले जाया गया जहाँ पर बड़े ही अच्छे ढंग से जलपान  लगाया हुआ था। सभी यात्रियों ने जलपान का आनंद लिया। जलपान के बाद संबोधन कक्ष में ले जाया गया। जहाँ चारों कुछ सोफ़े और कुर्सियाँ लगीं थीं। सब बैठ गए। जहां पर हमें कमाण्डेंट द्वारा आगे के दुर्गम पहाड़ी रास्ते मौसम, जलवायु, ठण्ड तथा इन सबके लिए सावधानियों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई। अंत में एल.ओ ने अति संक्षिप्त रुप में धन्यवाद देते हुए समस्त-दल की ओर से उनके सुझावों को मानने का वायदा किया और विदाई ली।  विदाई भी तो अति भावपूर्ण थी। फौजी बैंड की धुन बजाकर भेजा जा रहा था। हम सब गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे। उन सब के प्रति आभार मान रहे थे। सच में यह स्वागत यात्रा के उत्साह को  बढ़ाने वाला तथा  कभी भी न भुलाया जा सकने वाला था।

सभी यात्री भोले नाथ के जयकारों के साथ अपनी अगली मंज़िल धारचूला जोकि यहाँ से 56 KM दूर था चल पड़े। मिरथी से धारचूला नीचे ढलान पर है सो बस तेजी से दौड़ रही थी। शाम को  हम धारचूला के कुमाऊं-मंडल विकास निगम के गेस्ट-हाऊस में प्रवेश कर गए।
 
प्रवेश करते ही रिसेप्शन था जहाँ पर यात्री फनी कुमार ने  सभी को कमरा नंबर  और सहयात्री बता दिए। सभी अपने कमरे की चाबी लेकर चल दिए।  यहाँ पर स्टेट बैंक ऑफ़ पटियाला की तरफ से यात्रियों के स्वागत में बैनर लगाये हुए थे।  साथ में उन्होंने हमारे सहयात्री चौबल जी (जो मुंबई से हैं) और स्टेट बैंक ऑफ़ पटियाला में थे उनके स्वागत के लिए उनके नाम से भी बैनर लगाये हुए थे। गेस्ट हाउस के कमरे बहुत बड़े थे, साफ़-सुंदर, अटैच बाथरुम और टीवी लगा हुआ था। सामने दो खिड़की थी और खिड़की से बाहर छोटी सी अर्धगोलाकार बालकनी थी।  खिड़की खोलने पर सामने का नजारा देखने वाला था।  सामने काली नदी पूर्ण वेग और ध्वनि के साथ दौड़ रही थी और काली नदी के दूसरी तरफ नेपाल था। नीचे अब हमारा लगेज भी आगया है। रिशेप्शन पर बने बड़े कक्ष में ही सबके एक जैसे सफेद बोरे फैले हुए थे। सब बोरे पर अपना-अपना नाम ढूंढ रहे थे। मैं अपना लगेज ढूंढकर अपने कमरे में ले आया। मेरे साथ कमरे में दिनेश बांसल जी और चैना  राम जी थे।

बाथरुम में गर्म पानी आ रहा था। हाथ-मुंह धोकर तरो-ताजा हो कर हम काली नदी के दूसरी तरफ नेपाल घूमने निकल पड़े।  नदी में हेंगिंग ब्रिज बना हुआ है। जिसमें से लोग बिना किसी रोक टोक के आना जाना करते हैं किन्तु हमें बताया गया कि शाम 7.00 बजे के बाद आना-जाना बंद कर दिया जाता है। हम 5 -6 जन नेपाल साइड ब्रिज पार कर के नेपाल साइड घूम कर वापिस आ गए। 

कल के कर्यक्रम के अनुसार हमें  बताया गया  कि सभी यात्री अपना सामान ऐसे  तैयार करें कि सामान का वजन प्रति यात्री 20 किलो से अधिक न हो, चूंकि कल से पैदल यात्रा शुरू होनी है अत: जिन यात्री को पोनी एवं पोर्टर चाहिए वे आज यही बता दे ताकि कल उन्हें मंगती में वह सुविधा उपलब्ध कराया जा सकेगा। पोनी की दर लगभग 11000 /- आने जाने का और पोर्टर की दर लगभग 9000 /- आने जाने का था।  कु.मं.वि.नि. का निर्धारित ठेकेदार पंजीकरण-शुल्क ले कर रसीद दे देगा। एक तरफ़ की  राशि भारत तिब्बत बॉर्डर पार करते समय दी जाएगी। पूर्ण भुगतान वापिस  आने पर होगा।कुछ यात्रियों ने बिना पोनी/पोर्टर के ही यात्रा करना तय किया, कुछ के द्वारा केवल पोर्टर की मांग बताई गई तथा कुछ लोगों के द्वारा पोनी एवं पोर्टर दोनों की मांग नोट कराई गई। मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं पोनी और पोर्टर  करू या ना करू। मैं सोचता रहा और बाकी यात्रियों की बात सुनता रहा। लेकिन कुछ decide नहीं कर पाया। 

गाला में (अगला रात्रि विश्राम) लगेज नहीं मिलेगा। एक जोड़ी कपड़े साथ वाले बैग में रखें। फालतू सामान यहीं छोड़ा जा सकता है। आने पर वापिस मिल जाएगा। अधिक सामान न ले जाएं। अगले दिन सुबहे 8 बजे निकलना था, पुनः पैकिंग करके भगवान का नाम लिया और निद्रा समाधि में चले गए। 

इस यात्रा को आरम्भ से पढने के लिये यहाँ क्लिक करें। 


गोलू देवता मंदिर 

मंदिर के प्रवेश द्वार पर घंटियां 


गोलू देवता 



डीडीहाट में सुन्दर बच्चों द्वारा स्वागत 

बस के आगे चलती पायलट जिप्सी 

मिर्थी में स्वागत 










धारचूला में गेस्ट हाउस 


कमरे की खिड़की से बाहर का नजारा 
 
काली नदी के दूसरी तरफ नेपाल को जोड़ता पूल 
 


नेपाल में घूमते हुए फनी कुमार, श्रुति,अनिरुद्ध,प्रभु,दिनेश बंसल जी। 


धारचूला में बने मकान 
 













 
 

Sunday 26 July 2015

कैलाश मानसरोवर यात्रा ………चौथा दिन .......दिल्ली से अल्मोड़ा तक बस से ( वाया काठगोदाम , भीमताल )===340 KM


देर रात तक पैकिंग चलती रही। नींद  तो बिलकुल भी नहीं आ रही थी। मन में एक डर भी था कि क्या मैं ये कठिन यात्रा पुरी कर पाऊगा? सुबह जल्दी तैयार हो कर जीजा जी के साथ गुजरात समाज सदन  की तरफ निकल पड़ा। वहां पहुँच कर मैंने देखा सभी ने अपने अपने बैग तो पॉलीथिन वाले बड़े बैग में डाल रखे हैं। मैंने भी पोलिथिन वाले २ बैग लिए और अपने बैग को उसमे डाल कर उसे अच्छे से बाँध दिया और उन बैग पर अपना नाम लिख दिया। 

गुजराती समाज सदन में ब्रम्ह मुहुर्त से ही हलचल प्रारंभ हो गयी, इस के बाद  मै उदय कौशिक जी के कमरे में आ गया जहा शिव स्तुति रही थी। मैंने हवन एवं आरती कर के प्रसाद ग्रहण किया कौशिक जी ने आशीवार्द स्वरूप सभी को मालायें  पहना कर शुभ मंगल यात्रा एवं दर्शनों की कामना की।
 
तब तक वॉल्वो बस  आ गई गई थी सब यात्रियों ने अपने अपने बैग गुजरती समाज सदन के गेट के पास रख दिया जहाँ पर मैंने और अभिषेक ने सारे सामान को नोट कर के ट्रक में रखवा दिया। हमारे एल.ओ. साहब भी आ गये थे, सभी यात्री बाहर गेट पर आ गए थे। सभी यात्रियों को ‘ॐ नमः शिवाय’ लिखे पटके और माला भेंट में मिलीं।

सभी ने उच्च स्वर में भगवान शिव का जयजयकार किया और बस में बैठ गए। अभी चार पांच यात्री रह गए थे। उन्हें टेम्पो ट्रैवलर में बिठाया गया उन चार पांच यात्रियों में मैं भी एक था।  हमारी मिनी बस दिल्ली  की सड़को से घूमते हुए गाज़ियाबाद के जीटी रोड पर बने बड़े हॉल के आगे रुकी। हमारी बोल्वो बस हम से पहले पहुँच चुकी थी।  सब लोग हमारा इन्तजार कर रहे थे।  सामने गाज़ियाबाद मानसरोवर सेवा समिति के अध्यक्ष और अन्य सदस्य हमारे स्वागत में फूलों की मालाएं लेकर खड़े थे। सभी को मालाएं पहनायी गयीं और भगवान शिव के ध्यानस्थ रुप के चित्र वाला पेंडेंट लगी मालाएँ भेंट दी गयीं।


मंच सजाया हुआ था। एलओ साहब मुख्य आतिथि थे।  उनका विशेष स्वागत हुआ। लंबा सफ़र होने के कारण सभी तीर्थयात्रियों को अतिशीघ्र जलपान समाप्त करके बस में बैठने को कहा गया। गाज़ियाबाद के आतिथ्य-सत्कार के लिए धन्यवाद और आभार प्रकट करते हुए बस में जा बैठे। 

दोपहर को हम काठगोदाम कुमाऊँ-मंडल के अतिथि-गृह में पहुँच गए।  स्त्रियाँ  हाथ में थाल सजाए स्वागत के लिए खड़ी थीं। सभी तीर्थ-यात्रियों के तिलक लगाया गया और माला पहनायी गयीं। वहाँ स्थानीय अखबारों के और लोकल  टीवी चैनलों के पत्रकार  खड़े थे जिन्होंने सभी तीर्थयात्रियों के सामूहिक फोटो लिए और कुछ से बातचीत भी रिकॉर्ड की। काठगोदाम की दिल्ली से दूरी 280 KM के लगभग है। 


वही दोपहर का भोजन किया। सब पुनः चलने को तैयार थे। यहाँ से  मिनी बस से जाना होता है दो बसों में सभी यात्री जा के बैठ गए। लगभग 22 KM के बाद हमारी बस भीमताल के पास गीताधाम के लोक संग्रह पर रुकी।  एक तरह से ये एक म्यूजियम और आर्ट गैलरी थी।  जो बहुत ही अच्छी थी।

लोक संस्‍कृति  संग्रहालय 

लोक संस्कृत संग्रालय एक प्राइवेट संग्रालय है जिसे Dr. Yashodhar Mathpal ने 1983 में स्थापित किया था। Dr. साहिब एक पुरातत्व, क्यूरेटर, पेंटर, दार्शनिक हैं।  उन्होंने फाइन आर्ट्स में लखनऊ से डिप्लोमा, ड्राइंग और पेंटिंग में मास्टर डिग्री और पुरातत्त्व में P.hd की है। उन्होंने फ्रांस, इटली, इंग्लैंड, पुर्तगाल, ऑस्ट्रेलिया और भारत के कई जगहों पर पेंटिंग की प्रदर्शन आयोजित की हैं। पर्यटक यहां आकर तस्‍वीरों के विशाल संग्रह के साथ - साथ कीमती कलाकृतियों को भी देख सकते हैं। इस संग्रहालय में उत्‍तराखंड की समृद्ध संस्‍कृति को दर्शाने वाली विभिन्‍न पुरातात्विक वस्‍तुओं और रॉक कला का भी उम्‍दा कलेक्‍शन है। पर्यटक यहां आकर लोक चित्रों, लकड़ी की कलाकृतियों, प्राचीन पांडुलिपियों, भगवान और देवी की छवियों, कृषि के औजारों और वेशभूषा को भी देख सकते हैं।

Dr. Yashodhar Mathpal

 
फिर हमारी बस  कैंची-धाम में नीब  करोरी बाबा के आश्रम / मंदिर में रुकी।  सभी ने अंदर जा कर दर्शन किया। मौसम बहुत ही अच्छा था। 

कैंची - धाम आश्रम 

कैंची धाम में आश्रम की स्थापना नीब करोरी बाबा ने 1965 में की थी। बाबा जी हिन्दू देवता हनुमान जी के भक्त थे।  1958 में उन्होंने अपना घर त्याग दिया। उसके बाद वो लगातार नार्थ इंडिया में साधु की तरह घूमे। इस समय वो अलग अलग नामों जैसे लक्ष्मण दास, हांड़ी वाला बाबा , तिकोनी बाबा से प्रसिद्ध हुए। जब वो बावणिआ गुजरात में साधना करते रहे तो वहां पर वो तलैया बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए। वृन्दाबन में वे चमत्कारी बाबा के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन के बहुत सारे भक्त इंडिया से बाहर भी हैं।  जो इन्हे नीब करोरी बाबा और महाराजजी के नाम से जानते हैं। इन के बहुत सारे आश्रम इंडिया में और इंडिया से बाहर भी हैं। इन की मृत्यु 11 सितम्बर 1973 में वृन्दावन में हुई। हर साल 15 जून को यहाँ पर विशाल भंडारा होता है जिस में एक लाख के करीब लोग भंडारा ग्रहण करते हैं। 


Neeb Karori Baba ji

शाम  होते होते हम अल्मोड़ा मे  K.M.V.N  के गेस्ट हाउस में पहुंच गये। गेस्ट हाउस थोड़ा उचाई पर था। सारा दिन बस में बैठे बैठे टाँगे जाम हो गई थी। यहाँ आ कर एल ओ साहिब ने फनी कुमार  की ड्यूटी लगा दी कि वो सब को कमरे की चाबी अलॉट कर दे। सभी यात्रियों को कमरे की चाबी दे दी गई।  एक कमरे में तीन तीन यात्रियों के ठहरने का इंतजाम था। थोड़ी देर में खाना खाया, खाने से पहले एल ओ साहिब ने अगले दिन की यात्रा के बारे में बताया।  खाना खाने के बाद सभी यात्री अपने अपने कमरो में चले गए।  खाने के बाद एल .ओ साहब मै, वर्मा जी, कोचर जी, विपुल गेस्ट हाउस के पार्क में कुर्सी लगा कर बैठ गए और आपस में बातचीत की।  बाहर  का मौसम बहुत ही सुहाना था। कुछ देर बाद हम सब अपने कमरों में चले गए। 

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सामान की गिनती कर के ट्रक में रखते हुए। 
चलने से पहले 
 
गाज़ियाबाद समिति द्वारा हाल में स्वागत 












संग्रालाय के अंदर का दृश्य 

संग्रालाय के अंदर का दृश्य 



नीब करोरी बाबा आश्रम 
 
अल्मोड़ा में रात को होटल के बाहर गप - शप करते हुए।