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Sunday 3 July 2016

अर्की--लुटरु महादेव

अर्की--लुटरु महादेव 

लुटरु महादेव ( एक ऐसा शिवलिंग जहाँ पर सदियों से सिगरेट रखी जाती है, जो खुद सुलगती है और धुंआ ऐसे उड़ता है जैसे कोई कश लगा रहा हो। ) एक ऐसी छुपी हुई जगह जिस के बारे में मैंने अपने ऑफिस में एक बन्दे से सुना था आज से एक साल पहले। फिर इस जगह के बारे में याद ही नहीं रहा। दो महीने पहले ही व्हाट्सअप पर घुमक्कड़ ग्रुप (घूमने फिरने वालों का ग्रुप ) में मैंने इस जगह के बारे में सब दोस्तों को बताया। तब से दिल में एक कसक सी उठ रही थी इस जगह चला जाए। एक बार तो बाइक पर जाने का प्रोग्राम बन भी गया, लेकिन किसी वजह से जा ना सका। फिर अचानक 01.06.2016 को कार में महादेव के दर्शन के लिए सुबह 5.30 पर निकल गया। 6.20 पर हम जीरकपुर पहुँच गए। जीरकपुर से आगे हम शिमला वाली सड़क पर होते हुए धर्मपुर  पहुँच गए। धर्मपुर  से 1 कि.मी. पहले बायीं तरफ एक सड़क कसौली को जाती है। धर्मपुर से बायीं तरफ को मुड़ते हुए हम सुबाथु की ओर चल दिए। सुबाथू की तरफ मुड़ते ही 7 -8 कि.मी. तक ढलान है। उस के बाद हलकी चढाई। हमारी गाडी इस कम भीड़ भाड़ वाली सड़क पर चलती जा रही थी। 8.50 पर हम सुबाथू पहुँच गए। सुबाथू एक छोटा सा और 200 साल पुराना कैंटोनमेंट एरिया है। सुबाथू जिला सोलन हिमाचल प्रदेश का हिस्सा है। यह तक़रीबन 4500 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है। सुबाथू कैंट की स्थापना एंग्लो - नेपाल युद्ध (1814 -1816 ) जीतने के बाद हुई। जीत के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहाँ छावनी ड़ाल दी और प्रथम गोरखा राइफल स्थापित की। आजकल यहाँ 14वी गोरखा का प्रशिक्षण केंद्र है। यहाँ पर एक सुंदर कलिका देवी मंदिर है। जिसकी स्थापना 1958 की गई थी।

मिलिट्री एरिया में प्रवेश करने से पहले 10 रुपए की पर्ची कटती है। प्रवेश करते ही थोड़ी दुरी पर मुझे एक ऊंचाई पर सुंदर मंदिर दिखा। मैंने कार साइड में रोक कर मंदिर के बारे में पूछा तो एक जवान ने मंदिर जाने के लिए मना कर दिया। क्योंकि उनके किसी अधिकारी की विजिट थी। खैर हम आगे बढ़ते हुए सैनिक एरिया से बाहर आ गए। हमारी अगली मंजिल अब कुनिहार पहुंचना था जो यहाँ से 17 कि.मी. था। जैसे जैसे दिन चढ़ रहा था गर्मी भी बढ़ती जा रही थी। 7 कि.मी. के बाद हम गम्बेरपुल जगह पहुंचे। पुल पार करते ही मुझे एक बोर्ड दिखा जिस पर लिखा था विरजेश्वर महादेव मंदिर। बस उसके बाद मैंने दाईं तरफ विरजेश्वर महादेव मंदिर की तरफ गाडी मोड़ ली। आधा कि.मी. के बाद हम उस मंदिर के पास पहुँचे।  मंदिर में जाने के लिए एक छोटा सा पुल बना हुआ है। मंदिर एक छोटी सी नदी के किनारे बना हुआ है। मुख्य मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। महिलायों को देवता के दर्शन के लिए ऊँचे लोहे से बने सीढ़ीनुमा मचान पर चढ़ कर बाहर से दर्शन करने होते हैं। वहाँ पुजारी जी नहीं थे, जो हमे बता सकते कि महिलाएं क्यों नहीं मंदिर में प्रवेश कर सकती? हम ने मंदिर में दर्शन कर फोटो खींच कर बाहर की तरफ आ गए। मंदिर बहुत ही सुंदर जगह पर बना हुआ था।  अगर मौसम अच्छा होता तो वहाँ शायद हम कुछ देर और अवश्य रुकते। बाहर धूप बढ़ती जा रही थी। जल्दी से हम गाडी में बैठ गए और आगे अर्की के लिए रवाना हुए। कुनिहार को पार कर 17 कि.मी. आगे हम 10.50 पर हम अर्की पहुँच गए।

अर्की के बारे में

स्वतंत्रता पूर्व अर्की बाघल रियासत के नाम से प्रसिद्ध था। 13 वी या 14 वी शताब्दी में प्रारम्भ में बाघल रियासत की स्थापना परमार वंशीय अजयदेव ने की थी।  इस रियासत की राजधानी काफी समय तक धुंधन रही।  धुंधन के इलावा इस रियासत की राजधानी दाड़ला भी रही।  इस रियासत की सीमाएं काली सेरी ( बिलासपुर ) से जतोग ( शिमला ) और कुनिहार से मांगल तक फैली हुई थी। मुग़ल काल में बाघल रियासत भी मुग़लों के अधीन थी।  सन् 1643 में शोभा चंद ने अर्की नगर बसाया था और इसे राजधानी बनाया था। नगर के शीश पर पवित्र महादेव गुफा है। अर्की में हर साल दो दिन का मेला लगता है और मेले का मुख्य आकर्षण भैंस की लड़ाई होती है।

मंदिर से कुछ दुरी पहले ही हम ने कार रोक दी और इस के आगे पैदल चल पड़े।  थोड़ी सी सीढ़ियां चढ़ने पर हम मंदिर की गुफा के प्रवेश द्वार पर पहुँच गए। गुफा में जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। सीढ़ियां खत्म होते ही बहुत बड़ी गुफा है और बिल्कुल सामने लुटरु महादेव के दर्शन होते हैं। गुफा के अंदर प्रवेश करते ही सारी थकावट दूर हो गई।

लुटरु महादेव गुफा के बारे में

प्राचीन लुटरु महादेव गुफा एक चमत्कार की तरह है। आग्रेय चट्टानों से निर्मित इस गुफा की लम्बाई पूर्व से पश्चिम की तरफ लगभग 25 फ़ीट तथा उत्तर से दक्षिण की ओर 42 फ़ीट है। गुफा की ऊंचाई तल से 6 फ़ीट से 30 फ़ीट तक है। गुफा के ऊपर ढलुआ चट्टान के रूप में एक कोने से प्रकाश अंदर आता है। गुफा की ऊंचाई समुद्र तल से 5500 फ़ीट है ओर इस के चारों ओर 150 फ़ीट का क्षेत्र एक विस्तृत चट्टान के रूप में फैला है। गुफा के अंदर मध्य भाग में 8 इंच लम्बी प्राचीन प्राकृतिक शिव की पिंडी विधमान है। गुफा की छत में परतदार चट्टानों के रूप में भिन्न भिन्न लंबाइयों के छोटे छोटे गाय के थनो के अकार के शिवलिंग दिखाई पड़ते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार इनसे दूध की धारा बहती थी। लेकिन अब इन प्राकृतिक थनो से पानी की कुछ बुँदे टपकती रहती हैं, जिन्हे देख कर मानव आचर्यचकित हो जाता है। 



यहाँ पर शिवलिंग काफी अलग तरह का है आमतौर पर शिवलिंग की सतह पतली होती है। मगर यहाँ पर बने शिवलिंग में काफी गड्ढे बने हुए हैं। लोग इन्ही गड्ढों में सिगरेट फंसा देते हैं कुछ ही देर में सिगरेट खुद ब खुद सुलगने लगती है, मानो कोई कश ले रहा हो। एक बात जो यहाँ धयान देने वाली है शिवलिंग के ठीक ऊपर एक गुफा पर छोटा सा गाय के थन के जैसा एक शिवलिंग बना है जहाँ से पानी की एक एक बूँद ठीक शिवलिंग के ऊपर गिरती रहती है। पहले बाबा शीलनाथ जी यहाँ बैठा करते थे, जो पंजाब के चमकौर साहिब के शिव मंदिर के महान महात्माओं में से एक थे। वर्ष 1982 में केरल राज्य में जन्मे महात्मा सन्मोगानन्द सरस्वती जी महाराज का यहाँ आगमन हुआ। उनकी समाधि यही बनी हुई है। आजकल बाबा रामकिरपल भारती जी और महात्मा विजय भारती जी यहाँ विराजमान है तथा उनकी देखरेख में इसके संचालन के लिए लुटरु महादेव का भी गठन किया गया है। गुफा के नीचे विशाल धर्मशाला का भी निर्माण किया गया था। लोगों के बीच लुटरु महादेव की बड़ी मान्यता है।  दूर दूर से लोग यहाँ आते हैं।

गुफा में प्रवेश करते ही हमने कुछ देर विश्राम किया। गुफा के प्रवेश द्वार के बाईं तरफ बाबा रामकिरपल जी धूनी के पास बैठे थे। हम ने भोलेनाथ को जल चढ़ाया और पूजा की।  इस के बाद मैंने बाबा जी से शिवलिंग के कश वाली बात की और शिवलिंग पर सिगरेट लगाने के लिए विनती की। बाबा जी ने बड़ी नम्रता से मेरी विनती को स्वीकार कर अपने चेलों से सिगरेट लाने को बोला। उसके बाद बाबा जी ने सिगरेट को भर कर शिवलिंग में लगा दिया और जलाया।  देखते ही देखते सिगरेट अपने आप सुलगने लगी। ऐसे लग रहा था जैसे कोई सिगरेट का कश लगा रहा हो।

अगर वैज्ञानिक तरीके से देखें तो ये कोई चमत्कार नहीं है। क्योंकि मंदिर काफी ऊंचाई पर स्थित है। यहाँ पर हवा भी तेज चलती है। जैसे ही हवा तेज चलती है तो शिवलिंग के आस पास की हवा तेजी से गलियारा बनाती हुई निकलती है। इस से शिवलिंग पर फंसा कर रखी सिगरेट की आग तेज होती है और सुलगने लगती है। लेकिन एक बात तो तय है कि इस गुफा में आ कर मन शांत हो जाता है। गुफा का वातावरण बहुत ही भक्तिमय और पावन है। इतनी देर में कुछ और लोग भोले बाबा के दर्शनों के लिए आ गए। हम सब वही बैठ कर बाबा रमकिरपल जी के प्रवचनों का आनंद लिया। बाबा ने सब के लिए गुफा में ही चाय का प्रबन्ध किया। 2 घंटे गुफा में बिता कर पर लौटने लगे। जैसे ही हम सीढ़िया उतर कर जाने लगे तो वहाँ के सेवादारों ने हमे भोजन का न्यौता दिया। जिसे हम ने स्वीकार कर लिया। भोजन के लिए हम गुफा के पास बनी 5-6 कमरों की धर्मशाला में गए और गैलरी में बैठ गए। धर्मशाला के कमरे खुले, हवादार और साफ़ सुथरे थे। भोजन बहुत ही स्वादिष्ट था। जिस किसी ने धर्मशाला में रुकना हो तो वो वही रात को रुक सकता है। खैर हम भोजन कर और उन्हें धन्यवाद कर नीचे गाडी के पास आ गए। महादेव के दर्शनों के बाद हमारी अगली मंजिल अर्की का किला था।

मुख्य बाजार से 1 कि.मी. ऊंचाई एक ऊँची पहाड़ी पर अर्की किला है। किले में प्रवेश के लिए 20 रुपए की पर्ची कटवानी पड़ती है। अर्की के किले को 1695-1700 के मध्य राणा पृथ्वी सिंह ने बनवाया था। कार को हम ने किले के गेट के अंदर पार्क कर दी। दोपहर का समय और ऊपर से सूरज देवता भी पूर्ण रूप से दर्शन दे कर हमे पसीने से नहा रहे थे। खैर किसी तरह हम किले में प्रवेश किये। किले के गेट के सामने पक्का रास्ता था जिसके दोनों तरफ पार्क था जिसे अच्छे से सहज कर नहीं रखा गया था।  रास्ते के बिलकुल सामने किले का एक हिस्सा जो अब किसी का  प्राइवेट हिस्सा है। किले एक प्रवेश द्वार पर हेरिटेज होटल और कैफ़े का बोर्ड लगा हुआ था जो अब बंद हो चूका है। किले से अर्की शहर का नजारा बहुत ही सुंदर दिखता है। दीवाने-ए-ख़ास किले का एक  में मुख्य हिस्सा है जो देखने वाला है। जब हम उस हिस्से में पहुंचे तो वो हिस्सा लॉक था। हम ने वही पर किसी व्यक्ति को बोल कर उस हिस्से को खुलवाया। इस हिस्से में दीवारों पर बनी चित्रकला अत्यन्त लुभावनी है। पुरे दीवान -ए-ख़ास में चारों ओर , मध्य खम्बों पर और छतों पर ये रंग बिरंगे चित्र बनाए गए हैं। इन्हे देख कर तत्कालीन समाज की रूचि ,रीती, प्रवृति और प्रकृति का स्पष्ट चित्र सामने आता है। किला अब खंडहर अवस्था में था। लेकिन एक बात तय है अर्की का यह किला अपने अतीत की गौरव और वैभव की गाथा सुना रहा है। किले में ज्यादा कुछ घूमने वाला नहीं था ऊपर से गर्मी भी बहुत थी। किले घूम कर हम अपनी गाडी में आ गए और अपनी अगली मंजिल अर्की से 6 कि.मी. की दुरी पर जखोली में भद्रकाली मंदिर की तरफ चल दिए।

भद्रकाली छोटा सा और सुंदर मंदिर था। इस मंदिर की यहाँ पर बहुत ही मान्यता है। यहाँ पर माता पिंडी रूप में है। यहाँ शिव बाबा का भी मंदिर है। ये मंदिर 1000 साल पुराना बताया जाता है।

पटियाला से अर्की तक का रूट 

पटियाला----60----जीरकपुर----50----धर्मपुर----16----सुबाथू----17----कुनिहार----17----अर्की  = 160  KM

अगले भाग में जाने के यहाँ क्लिक करें। 


सुबाथू कैंट एरिया 

बिजेश्वर महादेव 


पुल पार करते ही बिजेश्वर महादेव मंदिर 

बिजेश्वर महादेव मंदिर 

मंदिर के अंदर 


दूर सामने बिजेश्वर महादेव मंदिर 


सामने पहाड़ी पर लुटरु महादेव की धर्मशाला

गुफा की तरफ जाने वाला रास्ता 

गुफा में रौशनी आने की जगह 

बाबा रमकिरपाल भारती जी 

भोले बाबा लुटरु महादेव 





गुफा की दीवार पर गणेश जी 

भोले बाबा कश लगाते हुए 


गुफा के अंदर का दृश्य 

गुफा की दीवारों पर उभरे हुए धनो से पानी टपकता हुआ। 


गुफा के बाहर से दृश्य 


धर्मशाला जहाँ हम ने लंगर खाया था। 

लुटरु महादेव की पहाड़ी से नीचे का दृश्य 

अर्की किले का प्रवेश द्वार 





किले से अर्की शहर का दृश्य 



दीवान -ए -ख़ास 


खम्बों पर बनी चित्रकारी 











जखोली में भद्रकाली मंदिर 



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